Monday, June 15, 2009


ये पेंसिल है या, बस एक लकड़ी का टुकड़ा
मुझे क्या पता, मैं तो ठहरा कबाड़ी

तमन्ना उठी कि इस पेंसिल को भीचूं
और आज इससे कुछ लकीरें तो खीचूं

लकीरें मेरी तुमसे ये पूंछती हैं
ये क्यों नासमझ हैं, ये क्यों बेतुकी हैं

मेरी इन लकीरों की चीखों को सुन लो
कचरे से मुझको उठा के तो देखो

चुनता हूं प्लास्टिक की बोतल और पन्नी
मुझे पेंसिल और कॉपी पकड़ा कर तो देखो

नंगे पैरों बहुत चल लिया अब
स्कूल के जूते पहना कर तो देखो

कलेक्टर ना सही, तो कुछ तो बनूँगा
छोटा सही, एक मौक़ा दे के तो देखो

-- शांतनु गुप्ता